शरीर एक अद्भुत संरचना है, जो एक सूक्ष्म कोशिका से आरंभ होकर असंख्य कोशिकाओं के निर्माण के माध्यम से बनता है। प्रत्येक कोशिका स्वयं में एक पूर्ण इकाई होती है। इस प्रकार, प्रत्येक शरीर में असंख्य कोशिकाएँ होती हैं और प्रत्येक कोशिका अपने आप में एक स्वतंत्र शरीर के समान होती है। अर्थात्, हर शरीर में असंख्य 'सूक्ष्म शरीर' होते हैं। हम यह कह सकते हैं कि एक शरीर का निर्माण अनेक सूक्ष्म शरीरों के मिलन से होता है।हर कोशिका का अपना एक केंद्रक होता है, जो उस कोशिका को नियंत्रित करता है। यह नियंत्रण केंद्रक के भीतर स्थित एक शक्ति के माध्यम से होता है, जो समय-समय पर नई कोशिकाओं के निर्माण का भी संचालन करती है। जब सभी कोशिकाएँ एक-दूसरे से समन्वित रूप से जुड़ती हैं, तब एक पूर्ण शरीर का निर्माण होता है। शरीर की रचना की यह प्रक्रिया एक ही कोशिका से प्रारंभ होती है।शरीर के निर्मित हो जाने के पश्चात्, सभी कोशिकाएँ मिलकर शरीर के भीतर एक केंद्रीय नियंत्रण केंद्र की रचना करती हैं, जो शरीर के मध्य भाग में—पेट के ऊपर स्थित होता है। यह मुख्य केंद्र पूरे शरीर की सभी कोशिकाओं के केंद्रकों को नियंत्रित करता है। इसी केंद्र में वह शक्ति विद्यमान होती है, जो न केवल शरीर को नियंत्रित करती है, बल्कि बाहरी वातावरण और परिस्थितियों के अनुसार शरीर को अनुकूलित भी करती है।मनुष्य ने इस शक्ति को हजारों वर्ष पूर्व ही पहचान लिया था। जब मानव मस्तिष्क का विकास हुआ और उसने अपने ज्ञान की सीमाओं का विस्तार किया, तब उसे अपने भीतर स्थित इस अद्भुत शक्ति का बोध हुआ। तब से लेकर आज तक मनुष्य इस शक्ति को समझने और जानने का निरंतर प्रयास करता आ रहा है। इस शक्ति को मानव समाज ने युगों से विभिन्न नामों से संबोधित किया है—जैसे आत्मा, प्राणशक्ति, जीवनशक्ति, चेतना, चैतन्य, जड़, परम तत्व आदि। इन सभी का तात्पर्य एक ही है—वह शक्ति जो जीवन को संचालित करती है, अर्थात् जीवनशक्ति या प्राण ऊर्जा।
शरीर के मध्य स्थित यही केंद्रक बुद्धि का विकास करता है। यही ऊर्जा शरीर को प्रकृति से जोड़ती है। इसी संबंध के कारण शरीर में ऐसे गुण स्वतः विकसित हो जाते हैं, जो जीव को प्रकृति की विषम परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता प्रदान करते हैं। यही कारण है कि धरती के अत्यंत कठिन और विषम वातावरणों—जैसे हिमनद (ग्लेशियर) अथवा विशाल मरुस्थलों में भी जीव अपना जीवन यापन करने में सक्षम होते हैं। यह जीवनशक्ति की अद्वितीय क्षमता का प्रमाण है।मनुष्य प्राचीन काल से ही इस जीवनशक्ति को जानने और समझने का प्रयास करता आया है। हर व्यक्ति अपने जीवनकाल में इस शक्ति को जानने, समझने और पहचानने की कोशिश अवश्य करता है। हम सभी जानना चाहते हैं कि हमारे भीतर जो यह जीवनशक्ति है, वह क्या है? यह हमारे शरीर को कैसे नियंत्रित करती है? जीवनशक्ति का अर्थ, उसकी परिभाषा, उसका कार्यक्षेत्र, उसका कार्य-प्रणाली—ये सभी प्रश्न हर मनुष्य के मन में कभी न कभी अवश्य उठते हैं।
इनके अतिरिक्त कुछ और भी मूलभूत प्रश्न हैं, जो मानव मस्तिष्क को जीवन के दौरान उद्वेलित करते हैं—जैसे:
मृत्यु क्या है?
शरीर नष्ट क्यों होता है?
क्या मनुष्य अमर हो सकता है?
जीवन का अर्थ और परिभाषा क्या है?
जीवन का महत्व क्या है?
क्या ईश्वर होते हैं?
यदि हाँ, तो ईश्वर कहाँ हैं?
संसार का अर्थ क्या है और उसका निर्माण कैसे हुआ?
क्या ईश्वर ने संसार की रचना की?
क्या ईश्वर ही इस संसार को चला रहे हैं?
क्या ईश्वर हमारे जीवन पर नियंत्रण रखते हैं?
पृथ्वी पर जीवन कैसे आरंभ हुआ?
पृथ्वी का प्रथम जीव कौन था?
जीव और जीवन में क्या भेद है?
ब्रह्मांड का निर्माण किसने किया?
क्या पृथ्वी के अतिरिक्त ब्रह्मांड में अन्यत्र भी जीवन है?
इसी प्रकार के और भी अनेक प्रश्न हैं:
धर्म क्या है?
धर्म की स्थापना किसने की?
धर्म का अर्थ, परिभाषा और महत्व क्या है?
क्या धर्म के नियमों का पालन आवश्यक है?
क्या धर्म भगवान ने बनाया या मनुष्य ने?
धार्मिक ग्रंथों का महत्व क्या है?
धार्मिक स्थलों का निर्माण कैसे हुआ और उनका महत्व क्या है?
प्रकृति का निर्माण कैसे हुआ?
प्रकृति कैसे कार्य करती है?
प्रकृति की परिभाषा क्या है और वह संतुलन कैसे बनाए रखती है?
प्रगति का महत्व क्या है?
क्या प्रकृति के बिना जीवन संभव है?
ज्ञान क्या है और मानव जीवन में उसका क्या महत्व है?
आत्मज्ञान क्या है और उसकी प्राप्ति कैसे होती है?
मनुष्य कौन है?
मनुष्य और प्रकृति के बीच संबंध क्या है?
समाज का अर्थ और उसकी उत्पत्ति कैसे हुई?
मानव समाज का महत्व क्या है?
आज के समय में मानव समाज की प्रमुख समस्याएँ क्या हैं?
सभ्यता और संस्कृति का अर्थ, महत्व और विकास कैसे हुआ?
इन सभी प्रश्नों के उत्तर जानने की जिज्ञासा हर मनुष्य में होती है। किंतु इन प्रश्नों की जटिलता के कारण हर व्यक्ति इनका उत्तर नहीं खोज पाता। जब कभी हमारे मन में इन प्रश्नों की हलचल होती है, तब हम धार्मिक ग्रंथों की ओर रुख करते हैं और वहाँ लिखे विचारों को आधार बनाकर अपने अंतःस्थ ज्ञान के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए उत्तर प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।
किन्तु वास्तविकता यह है कि इन प्रश्नों के सटीक उत्तर वही दे सकता है, जिसने अपने ज्ञान की समस्त सीमाओं को पार कर अपनी चेतना को उच्चतम स्तर तक पहुँचाया हो और आत्मज्ञान को प्राप्त किया हो। आज धरती पर जितने भी धार्मिक ग्रंथ उपलब्ध हैं, वे सभी ऐसे आत्मज्ञानी व्यक्तियों द्वारा ही रचित हैं, जिन्होंने अनुभव के माध्यम से सत्य का साक्षात्कार किया ।